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از بهر چه این کبود طارم |
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پر گرد شده است باز و مغتم؟ |
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زیرا که درو خزان به زر آب |
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بر دشت نبشت سبز مبرم |
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گشت آب پر از تم و کدر صاف |
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گر گشت هوای صاف پرتم |
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ور گشت شمیده گلبن زرد |
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داده است به سیب گونه وشم |
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ور بلبل را شکسته شد زیر |
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بربست غراب بیمزه بم |
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چون باد خزان بتاخت بر باغ |
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زو ریخته گشت لاله را دم |
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وز درد چو گشت زرد و پر گرد |
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رخسار ترنج و سیب از این غم |
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پوشیده لباس خز ادکن |
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بر ماتم لاله چرخ اعظم |
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آن نار نگر چو حلق سهراب |
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وان آب بنگر چو تیغ رستم |
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بربود خزان ز باغ رونق |
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بستد ز جهان جمال بستم |
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وز جهل و جنون خویش بنهاد |
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بر تارک نرگس افسر جم |
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این بود همیشه رسم گیتی |
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شادیش غم است و شکرش سم |
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گه خرم زید و، عمرو غمگین |
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گه غمگین زید و، عمرو خرم |
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چونانکه از این چهار خواهر |
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کاین نظم ازان گرفت عالم |
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دو نرم و بلند و بیقرارند |
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دو پست و خموش و سخت و محکم |
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وز خلق یکی به سان میش است |
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پر خیر و یکی به شر ضیغم |
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این در خور عذر و خواندن حمد |
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وان از در غدر و راندن ذم |
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وز قول یکی چو نیش تیز است |
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در جان و، یکی چو نرم مرهم |
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این ناخوش و خوار همچو خون است |
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وان خوش و عزیز همچو زمزم |
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بسیار مگوی هرچه یابی |
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با خار مدار گل رمارم |
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ناگفته سخن خیوی مرد است |
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خوش نیست خیو مگر که در فم |
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بگسل طمع از وفای جاهل |
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هرچند که بینیش مقدم |
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زیرا که اگر چو ابر بر شد |
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از دود سیه نیایدت نم |
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مردم مشمار بیوفا را |
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هرچند نسب برد به آدم |
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زیرا که زشاخ رست خرما |
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با خار و نیامدند چون هم |
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خواراست ز فعل زشت خودخار |
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خرما زخوشی چو دست مکرم |
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کس همچو مسیح نیست هر چند |
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مادرش بود به نام مریم |
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واندر شرف رسول کی بود |
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همسایه و یار او چون بن عم |
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از غدر حذر کن و میازار |
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کس را پنهان چو مار ارقم |
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کردار مدار خار و سوزن |
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گفتار حریر و خز و ملحم |
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وز عقل ببین به فعل پیداش |
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اندر دل دهر راز مبهم |
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زیرا که جهان از آزمایش |
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بس نادره ناطقی است ابکم |
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از جنبش بیقرار یک حال |
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افتاده بر این بلند پشکم |
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وین تاختن شب از پس روز |
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چون از پس نقره خنگ ادهم |
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آواز همی دهد خرد را |
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کاین کار هنوز نیست مبرم |
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رازی است که میبگفت خواهد |
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با تیره بساط سبز طارم |
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کان راز کند رمیده آخر |
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گرگان رمیده را از این رم |
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وان راز کند زمین اعدا |
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از خون دل و دو دیدهشان یم |
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وان راز برد به جان شیطان |
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از جان رسول حق ماتم |
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ای فرد و محیط هر دو عالم |
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آن نور لطیف، این مجسم |
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بر قهر عدوی خود برون آر |
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مر حجت خویش را از این خم |
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