| | | | | | |
|
زهی گنج حکمت که سقراط بود |
|
مبرا ز تفریط و افراط بود |
|
|
شد از جودت فکر ظلمتزدای |
|
همه نور حکمت ز سر تا به پای |
|
|
درین کار شاگرد بودش هزار |
|
فلاطون از آنها یکی در شمار |
|
|
به حکمت چو در ثمین سفته است |
|
به دانا فلاطون چنین گفته است: |
|
|
«بر آن دار همت ز آغاز کار، |
|
که گردی شناسای پروردگار! |
|
|
ره مرد دانا یکی بیش نیست |
|
بجز طبع نادان دو اندیش نیست |
|
|
نبینی درین شش در دیولاخ |
|
ز شادی دل شش نفر را فراخ |
|
|
یکی آن حسدور به هر کشوری |
|
که رنجش بود راحت دیگری |
|
|
دوم کینهورزی که از خلق زشت |
|
بود کینهی خلقاش اندر سرشت |
|
|
سوم نوتوانگر که بهر درم |
|
بود روز و شب در دل او دو غم |
|
|
یکی آنکه: چون چیزی آرد به کف؟ |
|
دوم آنکه: ناگه نگردد تلف! |
|
|
چهارم لیمی که با گنج سیم |
|
بود همچو نام زرش، دل دو نیم |
|
|
بود پنجمین طالب پایهای |
|
که در خورد آن نبودش مایهای |
|
|
کند آرزوی مقامی بلند |
|
که نتواند آنجا فکندن کمند |
|
|
ششم از ادب خالی اندیشهای |
|
که باشد حریف ادبپیشهای |
|
|
زبان را چو داری به گفتن گرو، |
|
ز هر سر، گشا گوش حکمت شنو! |
|
|
خدا یک زبانات بداده، دو گوش |
|
که کم گوی یعنی وافزون نیوش! |
|
|
مکش زیر ران مرکب حرص و آز! |
|
ز گیتی به قدر کفایت بساز! |
|
|
بدین حال با حکمتاندوزیات |
|
سلوک عمل گر شود روزیات، |
|
|
بری گوی دولت ز همپیشگان |
|
شوی سرور حکمتاندیشگان» |
|