| | | | | | |
|
تابش رای سایهی یزدان |
|
منت آفتاب باطل کرد |
|
|
آنچه بامن زلطف کرد امروز |
|
دربهار آفتاب با گل کرد |
|
|
کرمش پایمرد گشت و مرا |
|
منت دستبوس حاصل کرد |
|
|
خدمت خاک درگهش همه عمر |
|
جان من بنده در همه دل کرد |
|
|
به خدایی که آب حکمت او |
|
از دل خاک میدماند ورد |
|
|
دست تقدیر او ز دامن شب |
|
بر رخ روز میفشاند گرد |
|
|
که رهی در فراق وصلت تو |
|
زندگانی نمیتواند کرد |
|
|
به خدایی که درسپهر بلند |
|
اختر و مهر و مه مرکب کرد |
|
|
دایهی صنع و لطف قدرت او |
|
رونق حسن تو مرتب کرد |
|
|
که جهان بر من غریب اسیر |
|
اشتیاق جمال تو شب کرد |
|
|
مرکب من که دادهی شه بود |
|
جان فدای مراکب شه کرد |
|
|
بنده را با پیادگان سپاه |
|
درچنین جایگاه همره کرد |
|
|
اندر آمد ز بی جوی از پای |
|
رویم از غم به گونهی که کرد |
|
|
سالها گفت باز نتوانم |
|
آنچه با من فلک درین مه کرد |
|