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۴۴۶ |
صبا تو نکهت آن زلف مشکبو داری |
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بیادگار بمانی که بوی او داری |
۴۷۳ |
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دلم که گوهر اسرار حسن و عشق دروست |
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توان بدست تو دادن گرش نکو داری |
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در آن شمایل مطبوع هیچ نتوان گفت |
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جز این قدر که رقیبان تندخو داری |
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نوای بلبلت ای گل کجا پسند افتد |
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که گوش و هوش بمرغان هرزهگو داری |
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بجرعهٔ تو سرم مست گشت نوشت باد |
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خود از کدام خمست اینکه در سبو داری |
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بسرکشیّ خود ای سرو جویبار مناز |
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که گر بدو رسی از شرم سر فرو داری |
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دم از ممالک خوبی چو آفتاب زدن |
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ترا رسد که غلامان ماهرو داری |
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قبای حسنفروشی ترا برازد و بس |
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که همچو گل همه آیین رنگ و بو داری |
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ز کُنج صومعه حافظ مجوی گوهر عشق |
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قدم برون نه اگر میل جست و جو داری |
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