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کی باشد کاین قفص چمن گردد |
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و اندرخور گام و کام من گردد |
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این زهر کشنده انگبین بخشد |
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وین خار خلنده یاسمن گردد |
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آن ماه دو هفته در کنار آید |
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وز غصه حسود ممتحن گردد |
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آن یوسف مصر الصلا گوید |
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یعقوب قرین پیرهن گردد |
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بر ما خورشید سایه اندازد |
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وان شمع مقیم این لگن گردد |
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آن چنگ نشاط ساز نو یابد |
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وین گوش حریف تن تنن گردد |
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در خرمن ماه سنبله کوبیم |
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چون نور سهیل در یمن گردد |
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خمهای شراب عشق برجوشد |
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هنگام کباب و بابزن گردد |
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سیمرغ هوای ما ز قاف آید |
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دام شبلی و بوالحسن گردد |
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هر ذره مثال آفتاب آید |
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هر قطره به موهبت عدن گردد |
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هر بره ز گرگ شیر آشامد |
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هر پیل انیس کرگدن گردد |
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ز انبوهی دلبران و مه رویان |
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هر گوشه شهر ما ختن گردد |
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هر عاشق بیمراد سرگشته |
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مستغرق عشق باختن گردد |
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چون قالب مرده جان نو یابد |
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فارغ ز لفافه و کفن گردد |
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آن عقل فضول در جنون آید |
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هوش از بن گوش مرتهن گردد |
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جان و دل صد هزار دیوانه |
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از بوسه یار خوش دهن گردد |
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آن روز که جان جمله مخموران |
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ساقی هزار انجمن گردد |
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وان کس که سبال میزدی بر عشق |
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در عشق شهیر مرد و زن گردد |
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در چاه فراق هر کی افتادهست |
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ره یابد و همره رسن گردد |
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باقیش مگو درون دل میدار |
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آن به که سخن در آن وطن گردد |
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