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گوهر روح بود خواجه وزیر |
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لیک محبوس مانده در تن خویش |
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چون تنش روح گشت تیز چنو |
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باز پرید سوی معدن خویش |
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گر مقصر شدم به خدمت تو |
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بد مکن بر رهی کمانی خویش |
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بهترین خدمتست آنکه رهی |
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دور دارد ز تو گرانی خویش |
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ز تو ای چرخ نیلی رنگ دارم |
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هزاران سان عنا و درد جامع |
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نه تنها از تو بل کز هر چه جز تست |
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به من بر هست همچون سیف قاطع |
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مرا زان مرد نشناسی تو زنهار |
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که گردم از تو اندر راه راجع |
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طمع چون بگسلم از خلق از تو |
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مرا خوا یار باش و خوا منازع |
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چو بیطمعی و آزادی گزیدم |
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دلم بیزار گشت از حرص و قانع |
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بر آزادمردان و کریمان |
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گرانتر نیست کس از مرد طامع |
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ازین یاران چون ماران باطن |
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خلاف یکدگر همچون طبایع |
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بسان نسر طایر راست باشد |
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به پیش و پس بسان نسر واقع |
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عدو بسیار کس کو هر کسی را |
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نماند حقتعالی هیچ ضایع |
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چو عیسی را عدو بسیار شد زود |
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ببرد ایزد ورا در چرخ رابع |
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خسیسان را چرا اکرام کردیم |
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بخیلان را چرا کردیم صانع |
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همیشه خاک بر فرق کسی باد |
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که نشناسد بدی را از بدایع |
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حذر کن ای سنایی تو از اینها |
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ترا باری ندانم چیست مانع |
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ببر زین ناکسان و دیگران گیر |
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«کثیرالناس ارض الله واسع» |
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ثنا گفتیم ما مر خواجهای را |
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که نشناسد مقفا را ز مردف |
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عطارد در اسد بادش همیشه |
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یکی مقلوب و آن دیگر مصحف |
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ای آنکه ترا در تو تویی نیست تصرف |
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آن به که نگویی تو سخن را ز تصوف |
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در کوی تصوف به تکلف مگذر هیچ |
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زیرا که حرامست درین کوی تکلف |
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در عشوهی خویشی تو و این مایه ندانی |
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ای دوست ترا از تو تویی تست تخلف |
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راهیست حقیقت که درو نیست تکلف |
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زنهار مکن در ره تحقیق توقف |
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مینشنود امروز سنایی به حقیقت |
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بگرفت به اسرار ره عشق و تعنف |
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گر زین که اگر نشنوی ای دوست ازین پس |
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بر شاهد یوسف نکنی قصهی یوسف |
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بجهم از بد ایام چنانک |
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از کمان ختنی تیر خدنگ |
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گر به هر جور که آید بکشد |
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من پلنگم نکشم جور پلنگ |
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خواری و اسب گرانمایه مباد |
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من و این نفس عزیز و خر لنگ |
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