| | | | | | |
|
جزیری پر از بیشها بود و غیش |
|
به بالا و پهنا دو صد میل بیش |
|
|
فروان درو شهر و بی مر سپاه |
|
یکی شاه با فرّ و با دستگاه |
|
|
چو آن شه ز مهراج وز پهلوان |
|
خبر یافت، شد شاد و روشن روان |
|
|
ز نزل وعلف هر چه بایست ساز |
|
بفرمود و، شد با سپه پیشباز |
|
|
یکی هفته شان داشت مهمان خویش |
|
کمر بسته روز وشب استاده پیش |
|
|
به هر بزم چندان گهر برفرشاند |
|
که مهراج و گرشاسب خیره بماند |
|
|
ببخشیدشان هدیه چندان ز گنج |
|
کز آن ماند دریا وکشتی به رنج |
|
|
ز کافور وز عنبر وعود تر |
|
ز دینار و یاقوت و دُرّ و گهر |
|
|
ز بیجاده تاج و، ز پیروزه تخت |
|
ز زربفت فرش و ، مرجان درخت |
|
|
ز ترگ و ز شمشیر وز درع نیز |
|
همیدون طرایف ز هر گونه چیز |
|
|
دگر داد چندان به ایرانیان |
|
که گفتن به صد سال نتوانی آن |
|
|
وز آنجای خرّم دل و راهجوی |
|
به سوی جزیری نهادند روی |
|