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از آن پس نریمان چو شد چیره دست |
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پس از رزم در بزم و شادی نشست |
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ببد تا بیآمد جهان پهلوان |
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گرفتند شادی ز سر هردوان |
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سخن چند راندند از آن رزمگاه |
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وزآنجا به جندان گرفتند راه |
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ده و شهر و دز هر چه دیدند پاک |
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بکندند و ، با خون سرشتند خاک |
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تو گفتی زخوبان و از خواسته |
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بهشتیست هر خیمه آراسته |
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همی بُرد هر شیر جنگی شکار |
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گرفته به بر آهوی مشکسار |
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ز بازوش گرد میان کرده بند |
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ز گیسوش در دست مشکین کمند |
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فراوان بتان زینهاری شدند |
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فراوان به دزها حصاری شدند |
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رسیدند زی شهر جندان فراز |
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سپه خیمه زد دشت شیب و فراز |
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به چرخ از همه شهر بر شد خروش |
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ز جوشن وران باره آمد به جوش |
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به یک سو نریمان به کین دست بُرد |
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برآمد دگر سو سپهدار گرد |
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به هر گوشه عرّاده برساختند |
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همی دیگ جوشیده انداختند |
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کز آن دیگ چون آب جستی برون |
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همی سوختی جانور گونه گون |
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دگر بُد روان قلعهای نبرد |
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براو رزم سازنده مردان مرد |
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سر نیزه ها کرده چون چنگ شیر |
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که مردم کشیدندی از باره زیر |
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گرفتند گردان ایران و چین |
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کمان های زنبوری و چرخ کین |
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ز شاهین و طیاره بر هر گروه |
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همی سنگ بارید چون کوه کوه |
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ز پاشیدن آتش از هر کران |
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همی ریخت گفتی ز چرخ اختران |
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رخ مه ز گرد ابر پر چین گرفت |
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سر باره از نیزه پرچین گرفت |
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همه ترگ هاون شد از زخم سنگ |
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سر و مغز چون سرمه از گرز جنگ |
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بُد از تیر و پیکان های درشت |
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هر افکنده ای چون یکی خارپشت |
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جهان پهلوان کوشش اندر گرفت |
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گراینده گرز گران بر گرفت |
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چو بر باره مردم غمی شد ز جنگ |
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جهان پهلوان رفت گرزی به چنگ |
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در از آهن و باره از سنگ بود |
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به کین کرد سوی در آهنگ زود |
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همی زد چنان گرز کز زخم سخت |
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در و قفل و زنجیر شد لخت لخت |
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به شهر اندر افکند تن با سپاه |
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فروزد به باره درفش سیاه |
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به هر گوشه تاراج و پیکار خاست |
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خروشیدن بانگ زنهار خاست |
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همه بوم زن بُد ، همه کوی مرد |
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همه شهر دود و همه چرخ گرد |
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ز خون بسته شد بر کفِ پای گل |
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نه بر پای تن بُد ، نه بر جای دل |
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کجا خانه ای بُد به خوبی بهشت |
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از آتش دمان دوزخی گشت زشت |
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بتان را به خاک اندر افکنده تن |
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به خون غرقه پیش بت اندر شمن |
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به هر کوی جویی چنان خون گذشت |
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که از شهر یک میل بیرون گذشت |
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دو هفته چنین بود خون ریختن |
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جهان پُر ز تاراج و آویختن |
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چو چاره نبد شهری و لشکری |
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گرفتند زنهار و خواهشگری |
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از ایشان گنه پهلوان درگذشت |
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سپه را ز تاراج و خون باز داشت |
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نریمان همی رفت تا کاخ شاه |
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ز گردش پیاده سران سپاه |
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همه چاک خفتان زده بر کمر |
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گرفته به کف تیغ و خشت و سپر |
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هزاران پیاده به پیش اندرون |
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کشیده همه خنجر آبگون |
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پسِ پشت از ایران و زابل گروه |
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سواران برگستوان ور چو کوه |
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چو آمد سوی کاخ فغفور چین |
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ابا این بسنده دلیران کین |
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جهان دید پرخیل دلبر فغان |
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همه برده از پرده بر مه فغان |
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دو گلنارشان غرقه در خون شده |
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دو نرگس به مه بر دو جیحون شده |
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ز گل کنده شمشاد پُرتاب را |
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بدو رشته دُر خسته عناب را |
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به بتخانه ای بود فغفور چین |
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نهاده سر از پیش بُت بر زمین |
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همی خواست یاری به زارّی و درد |
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ز ناگه نریمان بدو باز خورد |
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بیازید و بگرفت دستش به شرم |
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بسی گفت شیرین سخن های گرم |
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که تاج شهی خار بنداختی |
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بر از پایگه سر کشی ساختی |
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شه ار چه به پایه ز هر کس فزون |
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نشایدش از اندازه رفتن برون |
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بیاورد بالای تا بر نشست |
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پیاده همی شد رکیبش به دست |
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جهان پهلوان بود بمیان شهر |
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به گردش بزرگان لشکر دو بهر |
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یکی تخت زیرش ز یاقوت و زر |
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به دیبای چین سایبانی ز بر |
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چو فغفور را دید شد پیش باز |
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نشاند از بَر تخت و بردش نماز |
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بسی خواست زو پوزش دلپذیر |
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که این بد که پیش آمد از من مگیر |
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تو دانی که پیش فریدون شاه |
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من از دل یکی بنده ام نیکخواه |
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نشاید به جز کام او کردنم |
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که فرمانش طوقیست بر گردنم |
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کسی را که روزیت بر دست اوست |
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توانایی دست او دار دوست |
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ترا بود از آغاز پنداشتی |
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که پند مرا خوار بگذاشتی |
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کنون گر ز من گشت آشفته کار |
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هم از من نکو گردد ، انده مدار |
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اگر چند از مار گیرند زهر |
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هم از وی توان یافت تریاک بهر |
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نگهبان گمارید چندی بر اوی |
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وزآنجا به تاراج بنهاد روی |
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پس پرده در کاخ مشکوی شاه |
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نه او شد نه کس را ز بُن داد راه |
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ز گنجش هم اندر زمان ده هزار |
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شتروار هر چیز برداشت بار |
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چه از زر چه از دیبهٔ رنگ رنگ |
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چه آرایش بزم و چه ساز جنگ |
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بگفتند کاین گنج کمترش بود |
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بگو تا نماید دگر گنج زود |
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به نیکی ورا گفت دادم نوید |
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مبادا کزآن پس شود ناامید |
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اگر چند خواری کند روزگار |
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شهان و بزرگان نباشند خوار |
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ز جندان و از گنج فغفور چین |
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ز تاراج آن بوم و بر همچنین |
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فراز آورید آنچه بُد در سپاه |
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گزین کرد ازو پنج یک بهر شاه |
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بفرمود تا نام هر یک بهم |
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زدند از پی یادگاری قلم |
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شتر سی هزار از درم بار کرد |
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دگر نیم ازین بار دینار کرد |
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ز زرینه آلت به خروارها |
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ز سیمینه ، چندانکه انبارها |
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شمرده شد از نافه سیصد هزار |
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صد از سلهٔ زعفران شصت بار |
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ز دُر چار صد تاج آراسته |
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گزیده همه یک یک از خواسته |
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ز یاقوت سیصد کمر بیغوی |
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ز گوهر چهل گرزن خسروی |
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دو صد خوان ز زرّ و ز جزع و جمست |
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وز آلتش خروار تیرست و شست |
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ز زرّ پیرهن سی و شش بافته |
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به هم پود با تار برتافته |
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طراز همه دُرّ بر زرّ ناب |
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گریبان و یاقوت و درّ خوشاب |
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ابا هر یکی افسری شاهوار |
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هم از گونه گون طوق با گوشوار |
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چهل درج پر درّ و یاره همه |
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که بُد نامشان دُّر واره همه |
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هزار و چهل بت ز هر پیکری |
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به کردار آراسته لشکری |
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ز زر بفت صد تخت بر رنگ رنگ |
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که بُد کمترین جامه سی من به سنگ |
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صد و سی هزار از خز و پرنیان |
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دو صد رزمه نو حلهٔ چینیان |
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کنیزان دگر سی هزار از چگل |
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پری چهره خادم هزار و چهل |
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دو ره ده هزار از بتان سرای |
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همه با ستور و سلیح و قبای |
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صد و سی هزار از ستور یله |
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که بر دشت و کُه داشت چوپان گله |
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ده و شش هزار اسپ نو کرده زین |
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همه زیر بر گستوان های چین |
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هزار اسپ دیگر به زرّین ستام |
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از ارغوان و از تازی تیزگام |
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ز خفتان و از جوش کارزار |
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ز درع و کژ آکند نو سی هزار |
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صد و بیست گردون همه تیغ و ترگ |
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دو چندان سپرهای مدهون کرگ |
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ز زر خشت تیرست و سی بار پنج |
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که مردی یکی بر گرفتی به رنج |
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نود بار صد جفت چینی کمان |
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به زر نیزه و تیر بیش از گمان |
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هزار و صد و سی جناغ پلنگ |
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ز هر گوهر آراسته رنگ رنگ |
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پرند آور هندویی شش هزار |
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تبرزین و ناخج فزون از شمار |
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صد و سی سپر گونه گونه ز زر |
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غلافش ز دیبا نگار از گهر |
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بی اندازه منجوق و زرّین درفش |
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همان چتر ها زرد و سرخ و بنفش |
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شراع و ستاره دو صد زرّ بفت |
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ز دیبا سراپرده هفتاد و هفت |
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دو صد خرگه اندر خور بزم و جام |
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نمد خز و چوبش همه عود خام |
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هم از بیکران خیمهٔ گونه گون |
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از اندازه شان فرش و آلت فزون |
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دگر خیمهٔ میخ او شش هزار |
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سراسر ز دیبای گوهر نگار |
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ز زر اندرو صد ستون ستیخ |
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از ابریشمش رشته و ز سیم میخ |
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ز دیبا یکی فرش زیبای او |
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دو پرتاب بالا و پهنای او |
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درفشان درفشی دگر از پرند |
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ز گوهر چو ز اختر سپهری بلند |
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که بر پیل کردندی آن را بپای |
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به صد مرد برداشتندی ز جای |
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بر او پیکر گرگی افراشته |
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به نوک سرو پیل برداشته |
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فراوان گهر زآن درفش بنفش |
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کشیدند در کاویانی درفش |
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سه گردون زرّین شتالنگ بود |
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ز هر دارویی هفتصد تنگ بود |
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فراوان دد و مرغ و نخچیر و گور |
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طرازیده از زرّ و سیم و بلور |
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ز عنبر یکی گنبد افراخته |
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به یک باره هر سو روان ساخته |
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بدودر چو کافور تختی ز عاج |
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فرازش فروهشته از مشک تاج |
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سرایی به بند و گشای آبنوس |
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هم از زر تیرست و هفتاد کوس |
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هزار و چهل جفت دندان پیل |
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ز پیروزه سی تخت همرنگ نیل |
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سروهای کرگ از هزاران فزون |
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همه چون خمانیده زآهن ستون |
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ختو هشتصد بار کز زهر بوی |
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چو آید فتد هر زمان خوی ازوی |
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ز کیمخت گردون دو صد بسته تنگ |
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همیدون طبر خون و چینی خدنگ |
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پر از نقره صندوق تیرست و شست |
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ز زرش همه قفل و زنجیر بست |
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پر از زر رسته چهل جفت نیز |
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چهل بُد طرایف ز هر گونه چیز |
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بیا کنده سی درج نو جفت جفت |
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ز هر گوهر سفته و نیم سفت |
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دوره چارصد تنگ قرطاس چین |
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پلنگینه چرم سِفن هم چین |
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ز هر موی روباه سیصد هزار |
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ز سنجاب و قاقم فزون از شمار |
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دوصد باره موی سمندر دگر |
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که آتش نباشد براو کارگر |
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دمان هفتصد پیل چون کوه نیل |
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به زر بسته دندان هر زنده پیل |
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دو ره چارصد یوز بد میش گیر |
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به تن همچو پاشیده بر قیر شیر |
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سیه گوش تیرست هریک به بند |
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پلنگان آمخته هشتاد و اند |
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فراوان سگ تند نخچیر در |
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به جل ها پرند و به زنجیر زر |
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دو صد باز و افزون ز سیصد خشین |
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صد و شصت طغرل همه به گزین |
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ده و شش هزار استر بارکش |
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به مهد و نمدزین دو صد بار شش |
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دو ره سی هزاران ز تازی هیون |
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ز فرش و نمد بارشان گونه گون |
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ز گاوان صد و سی هزار از شمار |
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ز میشان دوشا هزاران هزار |
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چو پنجه هزار دگر برده بود |
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که هریک به صد ناز پرورده بود |
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